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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेम चंद

1)
मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के आँगन में लज्जित खड़े थे। एक दूसरे को इल्जाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर बिगड़ रही थी। देवरानियाँ सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त फूलमती झल्लायी हुई आकर बोली- 'मुँह में कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी है? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्लू-भर पानी में! शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक़ भी नहीं रहे।' किसी लड़के ने जवाब न दिया।
फूलमती और भी प्रचंड होकर बोली- 'तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी ज़ि न्दगी घर की मरजाद बनाने में ख़राब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आयेगा नहीं!'
कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुँझला कर बोला- 'अच्छा, अब चुप रहो अम्माँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भयंकर भूल हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल-कर डालोगी? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?'
बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी- 'हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी! हमारा क्या दोष!'
कामतानाथ ने पत्नी को डाँटा- 'इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हारा, न मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती! टोकरे-के-टोकरे उड़ेल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना होती है। पर इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो!'
फूलमती ने दाँत पीसकर कहा- 'शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।'
कामतानाथ ने नि:संकोच होकर कहा- 'शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गयी। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को खबर भी न होती।'
फूलमती ने चकित होकर कहा- 'क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?'
कामता हँसकर बोला- 'क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्माँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गये हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। ज़रा-सी चुहिया में क्या रखा था!'
फूलमती को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है। जब पढे-लिखे आदमियों के मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें। अपना-सा मुँह लेकर चली गयी।

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